पुरानी बात हो गई, अब न कोई खुरचण खाता है न मळाई, एक दिन से ज्यादा कहाँ रुकता है अब जमाई ।

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पुरानी बात हो गई, अब न कोई खुरचण खाता है न मळाई, एक दिन से ज्यादा कहाँ रुकता है अब जमाई ।

खेत खजाना, यह तो सच है कि भोजन के बिना जीवन संभव ही नहीं हैए इसी भोजन के लिए तो हम दिन रात जीवन की लड़ाई लड़ते हैं। लेकिन समस्या ये है कि हम आजतक जान ही नहीं पाए कि हमें क्या खाना चाहिए और क्या नहीं। कभी लोग जीने के लिए भोजन करते थे लेकिन आज के इस आधुनिक युग में जहां एक से बढ़ कर एक पकवान सामने रखे हों तो इंसान के जीने का एक मकसद खाना भी बन जाता है। आज लोग अपनी जीभ के स्वाद के ऐसे पकवानों में फंस कर रह गया है।

जिससे हमने अपने जीवन से कुछ ऐसे पारंपरिक खाद्य पदार्थों को हटा दिया जो सिर्फ हमारा पेट ही नहीं भरते थेए बल्कि इसके साथ ही हमारे शरीर को भी बहुत से लाभ पहुंचाते थे। वो दुध दही और मक्खन का खाना समय के साथ विलुप्त होते जा रहे है। विलुप्त होते जा रहे देशी खाना को लेकर कविता सोशल मीडिया पर खुब वायरल हो रही है। जिसे हर कोई पढकर अपने सोशल अकांउट में अपलोड कर रहा है। और उसमें विभिन्न प्रकार के काॅमेंट भी आ रहे है। तो आइये आप भी एक नजर डालिए आज के इस लेख पर

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पुरानी बात हो गई

अब न कोई खुरचण खाता है न मळाई,
एक दिन से ज्यादा कहाँ रुकता है अब जमाई ।

वो झूलता छींका और वो जिमावणी,
बीती बात हो गई अब वो मिट्टी की कढावणी ।

देखते देखते न जाने क्या क्या बदल गया,
उखळ-मूसळ, चंगेरी, कुंडा तो गायब ही हो गया।

अब न इण्डि मिलती है न पिढी,
बहुत सारी चीजों का नाम तक नहीं जानती है नई पीढ़ी।

छप्पर की बाती में चहचहाती चिड़िया न जाने कहाँ उड़ गई,
मोबाइल आते ही दादा-दादी की कहानी भी खो गई।

हथचक्की, देगची, घीळडी सब पुरानी बात हो गई,
कुकर आते ही रसोई की खुशबू भी चली गई।

‘कृष्ण’ याद कर न हो उदास कुछ नहीं है अब तेरे हाथ,
आदमी भी तो बदल गए हैं अब वक्त के साथ 

नोट- यह कविता एक सोशल आकॉउन्ट से लिया गया है, अच्छा लगे तो आगे शेयर करें 

 

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