ओहो ! जयपुर के फाउंडर राधा गोविंद: 17 रुपये से शुरू की थी दुकान, आज चला रहे 8 करोड़ का कारोबार

ओहो ! जयपुर के फाउंडर राधा गोविंद: 17 रुपये से शुरू की थी दुकान, आज चला रहे 8 करोड़ का कारोबार
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ओहो ! जयपुर के फाउंडर राधा गोविंद: 17 रुपये से शुरू की थी दुकान, आज चला रहे 8 करोड़ का कारोबार

खेत खजाना: आज हम आपको एक ऐसी कहानी बताने जा रहे हैं, जिसमें एक गरीब परिवार से तल्लुक रखने वाले राधा गोविंद ने अपनी मेहनत और जुनून से अपना नाम रोशन किया है। वे जयपुर की ब्लॉक प्रिंटिंग के दम पर अपनी कंपनी ‘ओहो ! जयपुर’ को मुंबई में एक ब्रांड बना चुके हैं। उनका सालाना टर्नओवर 8 करोड़ से अधिक का है और वे 100 से ज्यादा लोगों को रोजगार दे रहे हैं। ये है उनकी फर्श से अर्श तक की कहानी।

राधा गोविंद का परिवार जयपुर से 30 किमी दूर बेगरू गांव का रहने वाला था। उनका परिवार 500 साल से ज्यादा पुरानी अपनी पुश्तैनी ब्लॉक प्रिंटिंग का कारोबार करता रहा था। लेकिन समय के साथ इस कारोबार में मंदी आ गई और उनका कारोबार पूरी तरह से बंद हो गया।

उनके पिता ने कर्ज लेकर अपना कारोबार चलाने की कोशिश की, लेकिन वो भी नहीं चला। कर्जदार उनके पीछे पड़ गए और उन्हें बदनाम करने लगे। उनकी मां को दूसरों से आटा-चावल मांगना पड़ता था। उनके घर का चूल्हा जलना बंद हो गया था।

राधा गोविंद उस वक्त 7-8 साल के थे। उन्हें अपने परिवार की हालत देखकर बहुत दुख होता था। उन्हें अपनी पढ़ाई भी छोड़नी पड़ी, क्योंकि उनके पिता ने उनकी फीस नहीं जमा करवाई थी। उन्होंने एक बार तो घर से भागने का भी इरादा किया था, लेकिन वो वापस आ गए।

उन्होंने अपने गुल्लक से 17 रुपये निकाले और घर के चबूतरे पर ही एक छोटी सी दुकान खोल दी। वहां वे चॉकलेट-बिस्कुट बेचते थे। उन्होंने अपनी मां को भी इस काम में शामिल कर लिया। उनकी मां उनके साथ बैठकर बिस्कुट बनाती थीं। इस तरह वे अपने घर का गुजारा करने लगे।

राधा गोविंद को ये पता था कि अगर वे कुछ बड़ा करना चाहते हैं तो उन्हें घर से बाहर जाना होगा। उन्होंने मुंबई का रुख किया। वे दो जोड़ी कपड़ा और एक चप्पल लेकर मुंबई पहुंच गए। वहां उन्हें कोई काम नहीं मिला। वे रातों रात स्टेशन पर सोते थे। वे किसी भी सूट-बूट वाले को देखकर उससे काम की भीख मांगते थे।

एक दिन उन्हें एक बुजुर्ग ने एक चॉल में दो सिलाई मशीन दीं और उन्हें कपड़ा बनाने का काम दिया। राधा गोविंद ने उस काम को बहुत ईमानदारी से किया। वे अपने गांव के कारीगरों से ब्लॉक प्रिंटिंग के कपड़े बनवाते थे और उन्हें मुंबई में बेचते थे। उनके कपड़ों की गुणवत्ता और डिजाइन को लोगों ने पसंद किया।

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