कम लागत से अधिक उत्पादन लेने हेतु गेहूँ उत्पादन तकनीक, कब और कैसे करें बुवाई
राष्ट्रीय तथा प्रादेशिक परिदृश्य-
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प्रदेश में गेहूँ उत्पादकता से सम्बन्धित समस्याये | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
(अ) असिंचित / सीमित सिंचाई क्षेत्रों से सम्बन्धित-
(ब.) सिंचित क्षेत्रों से सम्बन्धित
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प्रदेश में गेहूँ की काश्त का बदलता स्वरूप | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
(अ) पूर्व के वर्षों में असिंचित रकबा अधिक
(ब) सिंचित गेहूँ क्षेत्र में वास्तविक परिदृष्टि में सीमित सिंचाई उपलब्धता
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उत्पादन तकनीक | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
खेत की तैयारी
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उपयुक्त किस्मों का चयन | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
(अ) मालवा अंचल: रतलाम, मन्दसौर,इन्दौर,उज्जैन,शाजापुर,राजगढ़,सीहोर,धार,देवास तथा गुना का दक्षिणी भाग क्षेत्र की औसत वर्षा: 750 से 1250 मि.मी. मिट्टी: भारी काली मिट्टी
(ब) निमाड अंचल: खण्डवा, खरगोन, धार एवं झाबुआ का भाग क्षेत्र की औसत वर्षा: 500 से 1000 मि.मी. मिट्टी: हल्की काली मिट्टी
(स) विन्ध्य पठार: रायसेन, विदिशा, सागर, गुना का भाग क्षेत्र की औसत वर्षा: 1120 से 1250 मि.मी. मिट्टी: मध्य से भारी काली जमीन
(द) नर्मदा घाटी: जबलपुर, नरसिंहपुर, होषंगाबाद, हरदा क्षेत्र की औसत वर्षा: 1000 से 1500 मि.मी. मिट्टी: भारी काली एवं जलोढ मिट्टी
(य) बैनगंगा घाटी: बालाघाट एवं सिवनी क्षेत्र की औसत वर्षा: 1250मि.मी. मिट्टी: जलोढ मिट्टी
(र) हवेली क्षेत्र: रीवा, जबलपुर का भाग, नरसिंहपुर का भाग क्षेत्र की औसत वर्षा: 1000 से 1375 मि.मी. मिट्टी: हल्की कंकड़युक्त मिट्टी वर्षा के पानी को बंधान के द्वारा खेत में रोका जाता है।
ल. सतपुड़ा पठार: छिंदवाड़ा एवं बैतूल क्षेत्र की औसत वर्षा: 1000 से 1250 मि.मी. मिट्टी: हल्की कंकड़युक्त मिट्टी
(व) गिर्द क्षेत्र: ग्वालियर, भिण्ड, मुरैना एवं दतिया का भाग क्षेत्र की औसत वर्षा: 750 से 1000 मि.मी. मिट्टी: जलोढ़ एवं हल्की संरचना वाली जमीनें
(ह) बुन्देलखण्ड क्षेत्र: दतिया, शिवपुरी, गुना का भाग टीकमगढ़,छतरपुर एवं पन्ना का भाग क्षेत्र की औसत वर्षा: 1120 से 1250 मि.मी. मिट्टी: लाल एवं काली मिश्रित जमीन
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विशेष : सभी क्षेत्रों में अत्यन्त देरी से बुवाई की स्थिति में किस्में: एच.डी. 2404, एम.पी. 1202 | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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उन्नत कठिया किस्म | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
एच डी 8713 (पूसा मंगल) ,एच आई 8381 (मालवश्री) ,एच आई 8498 (मालवशक्ति) ,एच आई 8663 (पोषण),एम पी ओ 1106 (सुधा),एम पी ओ 1215, एच डी 4672(मालवरत्न) ,एच आई 8627 (मालवर्कीति)
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बीज की मात्रा | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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बीजोपचार | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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पोषक तत्वों का प्रयोग | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
सिंचाई -
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लागत में कमी (नयी तकनीक) | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मेड़ - नाली पद्धति |
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अधिक गेहूँ उत्पादन के विभिन्न तकनीकें | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
जीरो टिलेज तकनीक:- धान की पछेती फसल की कटाई के उपरांत खेत में समय पर गेहूँ की बोनी के लिय समय नहीं बचता और खेत ,खाली छोड़ने के अलावा किसान के पास विकल्प नहीं बचता ऐसी दशा में एक विशेष प्रकार से बनायी गयी बीज एवं खाद ड्रिल मशीन से गेहूँ की बुवाई की जा सकती है। जिसमें खेत में जुताई की आवश्यकता नहीं पड़ती धान की कटाई के उपरांत बिना जुताई किए मशीन द्वारा गेहूँ की सीधी बुवाई करने की विधि को जीरो टिलेज कहा जाता है। इस विधि को अपनाकर गेहूँ की बुवाई देर से होने पर होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है एवं खेत को तैयारी पर होने वाले खर्च को भी कम किया जा सकता है। इस तकनीक को चिकनी मिट्टी के अलावा सभी प्रकार की भूमियों में किया जा सकता है। जीरो टिलेज मशीन साधारण ड्रिल की तरह ही है इसमें टाइन चाकू की तरह है यह टाइन्स मिट्टी में नाली जैसी आकार की दरार बनाता है जिससे खाद एवं बीज उचित मात्रा एवं गहराई पर पहुँचता है। इस विधि के निम्न लाभ है।:- जीरो टिलेज तकनीक के लाभ :-
फरो इरीगेशन रेज्ड बेड (फर्व) मेड़ पर बुवाई तकनीक:-
मेड़ पर (फर्व) फसल लेने से लाभ
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वैष्विक उष्णता | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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जल तथा पोषक तत्व उपयोग क्षमता | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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काले गेरूआ के नये प्रभेद का प्रकोप (UG 99) | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय द्वारा एम पी ओ 1215, एम पी 3336, एम पी 4010 किस्में विकसित की इन किस्मों को ‘‘कीनिया‘‘में परीक्षण किया गया। सभी किस्में भन्ह 99 के प्रतिरोधी एवं अधिक उत्पादन देने की क्षमता है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
गुणों का संकलन (Value addition) | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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ज.ने.कृ.वि.वि. द्वारा विकसित किस्मों में गुणवत्ता का समादेश | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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म.प्र. का सकारात्मक पक्ष | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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खरपतवार नियंत्राण | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
खरपतवारों द्वारा 25-35 प्रतिशत तक उपज में कमी आने की संभावना बनी रहती है। यह कमी फसल में खरपतवारों की सघनता पर निर्भर करती है उत्पादन में कमी के अलावा फसल को दिये गये पोषक तत्व, जल, प्रकाश एवं स्थान आदि का उपयोग खरपतवार के पौधों के स्वयं के द्वारा करने के कारण होती है गेहूँ में नीदाँ नियंत्रण उपायों को मुख्यतः तीन विधियों से किया जा सकता है। गेहूँ की फसल में होने वाले खरपतवार मुख्यतः दो भागों में बांटे जाते है।
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रासायनिक विधि:- | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
रासायनिक विधि से नींदा तक को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि इससे समय की बचत होती है। रूप से भी लाभप्रद रहता है। इस विधि से नींदा नियंत्रण निम्न प्रकार करते हैं - नींदनाशक रसायनों की मात्रा एवं प्रयोग समय:-
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गेहूँ के विपुल उत्पादन के लिए मुख्य आवश्यक बातें:- | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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